" नई पीढ़ी देश के लिए जीना सीखे "


"जीवन के निष्कर्ष के सही होने की दृष्टि से व्यक्ति का जीवन के प्रति दृष्टिकोण निर्णायक होता है; जीवन में जीने के लिए क्या करना है और क्या करने के लिए जीना है इन दोनों विषयों के बीच वही अंतर है जो जीवन की सफलता और जीवन की सार्थकता के बीच होता है, जिसे समझ पाने की लिए  स्वयं का ज्ञान और जीवन का बोध महत्वपूर्ण है;

हम क्या करने के लिए जीते हैं या फिर हम जीने के लिए क्या करते हैं यह इस बात पर निर्भर करता है की हमारे लिए जीवन की समझ कितनी स्पष्ट है;   

इसलिए,ज्ञान का उद्देश्य अगर व्यक्ति के जीवन यापन की चिंता तक ही सीमित हो तो समाज में शिक्षा की व्यवस्था चिंता का कारन बन जाता है; क्योंकि तब अपनी विकृत शिक्षा नीति के कारन  समाज अपने सतत प्रयासों से एक ऐसी पीढ़ी का निर्माण करता है जिसके लिए महत्व का निर्धारण भी मूल्य से होता है।

 जब तक व्यक्ति को स्वयं का बोध न हो उसके लिए यह समझ पाना कठिन होगा की उसे क्या करने के लिए जीना है।  और तब, जीवन की सफलता के किसी भी माप दंड के अनुसार जीवन कितना भी सफल क्यों न हो, वह अपने प्रयास और प्रभाव से अपनी सार्थकता नहीं सिद्ध कर पाती। 

हम एक ऐसी संस्कृति के उत्तराधिकारी हैं जो कभी भी सत्य से प्रतिरक्षित नहीं रहा ; अच्छाई तो हमें सब से ग्रहण करना चाहिए, यही हमें हमारे धर्म ने सिखाया है, यही कारन था की  श्री राम ने लक्ष्मण को रावण के मृत्यु के पूर्व उससे ज्ञान प्राप्त करने भेजा था पर आज हम धर्मनिरपेक्षता के  प्रभाव में इतने व्यावहारिक हो चुके हैं की शिक्षा व्यवस्था में आध्यात्मिक तथ्यों के समावेश को भी शिक्षा का भगवाकरण बताते हैं;

एक राष्ट्र के रूप में अपनी स्वतंत्रता के 77 वीं वर्षगांठ  (Azadi Ka Amrit Mahotsav 2024 भारत देश के स्वतंत्रता की 77 साल पूरे होने का जश्न 'आजादी का 75 अमृत महोत्सव' के तहत भारत देश में Har Ghar Tiranga Abhiyan का शुभारंभ किया गया है ) 75 वे गणतंत्र दिवस  पर आज हमें यह सोचने की आवश्यकता है की हमें कहाँ  आना था और हम किधर चल पड़े हैं !!

एक राष्ट्र के रूप में अगर हम आज तक विकसित न हो पाए हैं तो केवल इसलिए क्योंकि हमें आज भी अपनी वास्तविकता की स्वीकृति से शिकायत  है। फिर चाहे हम कितने ही डॉक्टर, वकील, इंजीनियर और नेता समाज में क्यों न पैदा कर लें जब तक हम समाज में ऐसे व्यक्ति का निर्माण नहीं करेंगे जिसके आत्म विश्वास का आधार उसके वास्तविकता का सत्य हो, तब तक हम एक राष्ट्र के रूप में अपने परम वैभव को प्राप्त ही नहीं कर सकते।

यह हमारे समझ की कुंठा ही है जिसके कारन आज हम समाज में गतिरोध और संघर्ष के नए नए कारणों को जन्म देते हैं; जिस शक्ति का उपयोग समाज के विकास के प्रक्रिया को गति प्रदान  करने के लिए होना था आज उसका प्रयोग राजनीति द्वारा  सामाजिक घर्षण  पैदा करने के लिए हो रहा है ; दोषी राजनीति नहीं वह तो केवल अवसरवादी है, दोष समाज का है जो आज अपने सीमित समझ के कारन ही  अन्याय, उत्पीडन और  शोषण का पात्र बन गया है।

वर्ण व्यवस्था व्यक्ति के गुणों पर आधारित थी जिसके आधार पर व्यक्ति के कर्मों का निर्धारण होता था  पर आज हमने उसी वर्ण व्यवस्था का आधार जन्म को मानकर उसे ही विवाद का विषय बना दिया । 

अगर मंदिर का पुजारी ब्राह्मण होता है तो इसका अर्थ यह है की जो भी पुजारी हो वह अपने गुणों से स्वयं को ब्राह्मण सिद्ध करे, पर जब से गुण की अपेक्षा जन्म को वर्ण का आधार मान लिया गया, तुस्टिकरण की राजनीति ने अपने स्वार्थ के लिए गुणों के बजाये जन्मों को वर्ण का आधार बनाकर समाज को संघर्ष का विषय दे दिया।

   आज जब देश फिर से एक बार अपनी स्वतंत्रता दिवस ( 15th August ) & गणतंत्र दिवस ( 26th January मना रहा है, यह हमें सोचना है की क्या हमारे लिए राष्ट्रीयता की भावना और राष्ट्र के प्रति अपने कर्तव्य और प्रेम की  अभिव्यक्ति केवल वार्षिक महोत्सव तक सीमित रखकर हम अपना राष्ट्रधर्म सही तरिके से निभा रहे हैं ? क्योंकि अगर आडम्बर, औपचारिकता और खोकली भावनाओं तक ही राष्ट्रभक्ति सीमित रहकर रह जायेगी तो हमारी आगे वाली पीढ़ी की शिक्षा और राष्ट्र के प्रति दृष्टिकोण ही गलत विकसित होगी, जिसका दोषी कोई और नहीं बल्कि केवल हम होंगे।"
भारतमाता की जय !

Santoshkumar B Pandey at 10.15 Am

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