श्री नाथूराम गोडसेजी : एक देशभक्त, भारत माता के पुत्र !

 श्री नाथूराम गोडसे का अंतिम पत्र अपने माता-पिता के नाम

अंबाला, सेंट्रल जेल – दिनांक 12.11.1949

परम वंदनीय माताजी और पिताजी – अत्यंत विनम्रता पूर्वक अंतिम प्रणाम ।आपका आशीर्वादात्मक तार प्राप्त हुआ। आपने अपने स्वास्थ्य और वृद्धावस्था को ध्यान में रखते हुए, यहां तक न आने की मेरी विनती को स्वीकार कर लिया, इससे मुझे बहुत संतोष हुआ।आपके छायाचित्र मेरे पास हैं, उनका पूजन करके ही मैं ब्रह्म मे लीन हो जाउंगा।

व्यवहारिक और लौकिक दृष्टि से देखा जाये तो आपको इस घटना से बहुत दुख होगा, इसमें संदेह नहीं, परंतु यह पत्र मैं किसी प्रकार के दुःखावेग अथवा दुःख की चर्चा के लिये नहीं लिख रहा हूं। आप गीता के नियमित पाठक हैं। पुराणों का अध्ययन भी आपने किया हुआ है। जिस कृष्ण ने गीता ज्ञान की गंगा प्रवाहित की उन्हीं श्रीकृष्ण भगवान ने राजसूय यज्ञभूमि पर शिशुपाल जैसे राजा का अपने सुदर्शन चक्र से वध किया है (रणभूमि पर नहीं), किंतु क्या कोई कह सकता है कि भगवान श्रीकृष्ण ने शिशुपाल का वध कर कोई पाप किया ? केवल शिशुपाल का ही नहीं अपितु अनेक असंहारी असुरों का भी वध उन्होंने विश्व कल्याण की भावना से किया और फिर गीता उपदेश द्वारा उन्हीं श्रीकृष्ण ने अर्जुन को अपने बंधु-बांधवों से लड़ने के लिये गांडीव धनुष उठाने का आह्वान किया।

पाप और पुण्य मनुष्य के काम में नहीं, उसकी मनोभावना में विद्यमान रहते हैं। दुष्टों को दान देना पुण्य नहीं समझा जाता, ‘उसे अधर्म माना गया है।‘ केवल एक सीता माता के कारण रामायण की कथा बन गयी और एक द्रौपदी के कारण महाभारत का इतिहास बन गया। भारत में इस समय सहस्त्रावधि हिंदू महिलाओं का शीलहरण हो रहा था और शीलहर्ता पाकिस्तानी राक्षस यवनों के प्रति, हर प्रकार से सहायता के प्रयत्न हो रहे थे, इस स्थिति में अपने प्राणों के भय से अथवा जननिंदा के भय की शंका से डर कुछ भी न कर मूकदृष्टा बने रहना मुझे न भाया। मैं समझता हूं कि उन सहस्त्रों हिंदू महिलाओं के आशीर्वाद आज मुझे प्राप्त है।

मैं अपनी मातृभूमि के चरणों पर अपना बलिदान प्रस्तुत करता हूं। मेरे इस कार्य द्वारा, मेरे अपने और उसके साथ कुछ अन्य कुटुंबियों की दुर्दशा अवश्य हो गयी है, किंतु मेरी दृष्टि के सम्मुख छिन्न-विछिन्न मंदिर, छिन्न मस्तकों की श्रृंखला, हिंदू बालकों की निर्मम हत्या, रमणियों की विडंबना, प्रति क्षण विद्यमान रहते हैं। आततायी और अनाचारी दुष्ट यवनों को मिलने वाली सहायता समाप्त करना मैंने अपना कर्तव्य समझा था।

मेरा मन क्षुब्ध है मेरी आत्मा भी उसी प्रकार क्षुब्ध थी। कहने वाले भले ही कुछ कहते रहें, किंतु मैं समझता हूं कि एक क्षण के लिये भी मेरा मन विक्षुब्ध नहीं हुआ है। यदि संसार में कोई स्वर्ग नाम का स्थान है तो मेरा स्थान वहां सुरक्षित है, ऐसी मेरी धारणा है। उसके लिये मुझे किसी प्रकार की प्रार्थना करने की आवश्यकता नहीं होगी। यदि कहीं मोक्ष है तो उसकी कामना मुझे है।

दया के नाम पर अपने जीवन की याचना करना मुझे तनिक भी रूचिकर नहीं। और भारत शासन को धन्यवाद देता हूं कि उसने स्वतः ही मुझ पर किसी प्रकार की दया क्षमा कर मेरे मृत्युदंड को नहीं घटाया। दया की भिक्षा के आधार पर जीवित रहने को मैं वास्तविक मृत्यु मानता हूं। मृत्युदंड देने वालों में मुझे मारने की शक्ति नहीं है।

मेरा बलिदान मेरी मातृभूमि प्रेम से स्वीकार करेगी। मुत्यु मेरे सामने नहीं आई अपितु मैं स्वयं ही मृत्यु के सम्मुख जाकर खड़ा हो गया हूं। मैं मृत्यु की ओर प्रसन्नवदन दृष्टिपात कर रहा हूं और वह भी एक मित्र की भांति मेरा आलिंगन करने के लिये आतुर है।

आपुले मरण पाहिले म्यां डोला।

तो जाहजा सोहळा अनुपम।।

जातस्य हि मृत्युः धु्रवोम जन्म मृतस्य च।

तस्मादपरिहार्येथे न त्वं शोचितुमर्हसि।।

गीता के श्लोक-श्लोक में जीवन और मृत्यु की समस्या का विवेचन भरा हुआ है। ज्ञानी मनुष्य को शोक विह्वल करने की शक्ति मृत्यु में नहीं है। ‘‘मेरे शरीर का तो नाश हो जायेगा, परंतु मैं विद्यमान रहूंगा। सिंधु नदी से कन्याकुमारी तक भारतवर्ष को पूर्णतया स्वतंत्र करने का मेरा ध्येय-स्वप्न मेरे शरीर की मृत्यु से मिटना संभव नहीं।‘‘

शासन ने आपको मुझसे मिलने की अंतिम स्वीकृति नहीं दी। शासन से किसी भी प्रकार की सद्भावना की अपेक्षा न रखते हुए भी यह कहना पड़ेगा कि अपना शासन किस प्रकार मानवता के तत्व को अपना रहा है।

(माता-पिताजी वृद्ध हैं, वे लोग पूना में रहते हैं। उनकी इतनी लंबी यात्रा कर मुझसे मिलने के लिये आना संभव नहीं है। अतः उनसे मिलने के लिये मुझे एक बार वहां ले जाया जाय जिससे की वे मुझसे मिल सकें और वहीं यरवदा (पूना) बंदीगृह में मुझे फांसी दे दी जाय, इस प्रकार की विनती नाथूराम ने शासन से की थी। उनको शासन ने स्वीकार नहीं किया। इसी का संकेत उन्होंने अपने पत्र में उपर लिखा है।)

मैं समझता हूं कि आपको इससे अधिक लिखने की आवश्यकता नहीं है। मेरे मित्रगण और चि. दत्ता, गोविंद, गोपाल आदि आपको कभी मेरा अभाव खटकने नहीं देंगे। मैं अप्पा सें पूरे विस्तार से बात करूंगा, वह आपके सब कुछ समझण् देगा। कभी मेरा अभाव खटकने नहीं देंगे।

इस देश में लाखों ऐसे मनुष्य होंगे जिनके नेत्रों से इस बलिदान से अश्रु प्रवाहित होंगे। वे लोग आपके दुःख में सहभागी हैं। इसमें संदेह नहीं कि आप भी स्वयं को इश्वर की निष्ठा के बल पर संभाले रहेंगे।

अखंड भारत अमर रहे वंदे मातरम्।

आपके चरणों में सहस्त्र प्रणाम।।

आपका

(नाथूराम गोडसे)

Shri Nathuram Godse :- 

I used publicly to take part in organized anti-caste dinners in which thousands of Hindus ( Brahmins, Kshatriyas, Vaisyas, Chamars and Bhangis ) participated. We broke the caste rules and dined in the company of each other. I have read the speeches and writings of Chanakiya, Dadabhai Naoroji, Vivekanand, Gokhale, Tilak, along with the books of ancient and modern history of India and some prominent countries like England, France, America and Russia. Moreover I studied the tenets of Socialism and Marxism. But above all I studied very closely whatever Veer Savarkar and Gandhiji had written and spoken, as to my mind these two ideologies have contributed more to the moulding of the thought and action of the Indian people during the last thirty years or so, than any other single factor has done.

All this reading and thinking led me to believe it was my first duty to serve Hindudom and Hindus both as a patriot and as a world citizen. To secure the freedom and to safeguard the just interests of some thirty crores (300 million) of Hindus would automatically constitute the freedom and the well-being of all India, one fifth of human race. 🌺💕💟🚩🕉️🙏

Nathuram Godse’s final statement in Court

“On January 13, 1948, I learnt that Gandhiji had decided to go on fast unto death. The reason given was that he wanted an assurance of Hindu-Muslim Unity But I and many others could easily see that the real motive [was] to compel the Dominion Government to pay the sum of Rs 55 crores to Pakistan, the payment of which was emphatically refused by the Government But this decision of the people’s Government was reversed to suit the tune of Gandhiji’s fast. It was evident to my mind that the force of public opinion was nothing but a trifle when compared with the leanings of Gandhiji favourable to Pakistan.

In 1946 or thereabout, Muslim atrocities perpetrated on Hindus under the Government patronage of Surhawardy in Noakhali made our blood boil. Our shame and indignation knew no bounds when we saw that Gandhiji had come forward to shield that very Surhawardy and began to style him as ‘Shaheed Saheb’ – a martyr – even in his prayer meetings

Gandhiji’s influence in the Congress first increased and then became supreme. His activities for public awakening were phenomenal in their intensity and were reinforced by the slogans of truth and non-violence which he ostentatiously paraded before the country I could never conceive that an armed resistance to the aggressor is unjust

Ram killed Ravan in a tumultuous fight Krishna killed Kansa to end his wickedness In condemning Shivaji, Rana Pratap and Guru Govind as ‘misguided patriots,’ Gandhiji has merely exposed his self-conceit Gandhiji was, paradoxically, a violent pacifist who brought untold calamities on the country in the name of truth and nonviolence, while Rana Pratap, Shivaji and the Guru will remain enshrined in the hearts of their countrymen forever.

By 1919, Gandhiji had become desperate in his endeavours to get the Muslims to trust him and went from one absurd promise to another He backed the Khilafat movement in this country and was able to enlist the full support of the National Congress in that policy very soon the Moplah Rebellion showed that the Muslims had not the slightest idea of national unity There followed a huge slaughter of Hindus The British Government, entirely unmoved by the rebellion, suppressed it in a few months and left to Gandhiji the joy of his Hindu-Muslim Unity British Imperialism emerged stronger, the Muslims became more fanatical, and the consequences were visited on the Hindus

The accumulating provocation of 32 years, culminating in his last pro-Muslim fast, at last goaded me to the conclusion that the existence of Gandhiji should be brought to an end immediately he developed a subjective mentality under which he alone was the final judge of what was right or wrong Either Congress had to surrender its will to him and play second fiddle to all his eccentricity, whimsicality or it had to carry on without him He was the master brain guiding the civil disobedience movement The movement may succeed or fail; it may bring untold disasters and political reverses, but that could make no difference to the Mahatma’s infallibility These childish inanities and obstinacies, coupled with a most severe austerity of life, ceaseless work and lofty character, made Gandhiji formidable and irresistible In a position of such absolute irresponsibility, Gandhiji was guilty of blunder after blunder.

The Mahatma even supported the separation of Sindh from the Bombay Presidency and threw the Hindus of Sindh to the communal wolves. Numerous riots took place in Karachi, Sukkur, Shikarpur and other places in which the Hindus were the only sufferers.

From August 1946 onwards, the private armies of the Muslim League began a massacre of the Hindus Hindu blood began to flow from Bengal to Karachi with mild reactions in the Deccan The Interim government formed in September was sabotaged by its Muslim League members, but the more they became disloyal and treasonable to the government of which they were a part, the greater was Gandhi’s infatuation for them.

The Congress, which had boasted of its nationalism and socialism, secretly accepted Pakistan and abjectly surrendered to Jinnah. India was vivisected and one-third of the Indian territory became foreign land to us This is what Gandhiji had achieved after 30 years of undisputed dictatorship, and this is what Congress party calls ‘freedom’.

One of the conditions imposed by Gandhiji for his breaking of the fast unto death related to the mosques in Delhi occupied by Hindu refugees. But when Hindus in Pakistan were subjected to violent attacks he did not so much as utter a single word to protest and censure the Pakistan government.

Gandhi is being referred to as the Father of the Nation. But if that is so, he had failed his paternal duty inasmuch as he has acted very treacherously to the nation by his consenting to the partitioning of it The people of this country were eager and vehement in their opposition to Pakistan. But Gandhiji played false with the people.

I shall be totally ruined, and the only thing I could expect from the people would be nothing but hatred if I were to kill Gandhiji. But at the same time, I felt that Indian politics in the absence of Gandhiji would surely be proved practical, able to retaliate, and be powerful with armed forces. No doubt, my own future would be totally ruined, but the nation would be saved from the inroads of Pakistan.

I do say that my shots were fired at the person whose policy and action had brought rack and ruin and destruction to millions of Hindus There was no legal machinery by which such an offender could be brought to book, and for this reason I fired those fatal shots

I do not desire any mercy to be shown to me I did fire shots at Gandhiji in open daylight. I did not make any attempt to run away; in fact I never entertained any idea of running away. I did not try to shoot myself for, it was my ardent desire to give vent to my thoughts in an open Court. My confidence about the moral side of my action has not been shaken even by the criticism levelled of against it on all sides. I have no doubt, honest writers of history will weigh my act and find the true value thereof some day in future.”

नाथूराम गोडसे का जन्म 19 मई 1910 को भारत के महाराष्ट्र राज्य में पुणे के निकट बारामती नामक स्थान पर चित्तपावन ब्राह्मण मराठी परिवार में हुआ था। इनके पिता विनायक वामनराव गोडसे पोस्ट आफिस में काम करते थे और माता लक्ष्मी गोडसे सिर्फ एक गृहणी थीं। नाथूराम के जन्म का नाम रामचन्द्र था। इनके जन्म से पहले इनके माता-पिता की सन्तानों में तीन पुत्रों की अल्पकाल में ही मृत्यु हो गयी थी केवल एक पुत्री ही जीवित बची थी। इसलिये इनके माता-पिता ने ईश्वर से प्रार्थना की थी कि यदि अब कोई पुत्र हुआ तो उसका पालन-पोषण लड़की की तरह किया जायेगा। इसी मान्यता के कारण इनकी नाक बचपन में ही छेद दी और नाम भी बदल दिया। बाद में ये नाथूराम विनायक गोडसे के नाम से प्रसिद्ध हुए।

बचपन :                                                            

ब्राहमण परिवार में जन्म होने के कारण इनकी बचपण से ही धार्मिक कार्यों में गहरी रुचि थी। इनके छोटे भाई गोपाल गोडसे के अनुसार ये बचपन में ध्यानावस्था में ऐसे-ऐसे विचित्र श्लोक बोलते थे जो इन्होने कभी भी पढ़े ही नहीं थे। ध्यानावस्था में ये अपने परिवारवालों और उनकी कुलदेवी के मध्य एक सूत्र का कार्य किया करते थे परन्तु यह सब १६ वर्ष तक की आयु तक आते-आते स्वत: समाप्त हो गया।

शिक्षा-दीक्षा :                                                        

 यद्यपि इनकी प्रारम्भिक शिक्षा पुणे में हुई थी परन्तु भारत के स्वतन्त्रता संग्राम के आन्दोलन से प्रभावित होकर हाईस्कूल के बीच में ही अपनी पढाई-लिखाई छोड़ दी तथा उसके बाद कोई औपचारिक शिक्षा नहीं ली। धार्मिक पुस्तकों में गहरी रुचि होने के कारण रामायण, महाभारत, गीता, पुराणों के अतिरिक्त स्वामी विवेकानन्द,स्वामी दयानन्द,बाल गंगाधर तिलक तथा महात्मा गान्धी के साहित्य का इन्होंने गहरा अध्ययन किया था।

प्रारम्भिक व्यवसाय :                                               

कुछ दिनों के लिए नाथूराम ने कपड़ों की सिलाई का कार्य किया। लेकिन व्यवसाय छोड़ कर राजनीति में चले गए।

राजनैतिक जीवन :                                                

 अपने राजनैतिक जीवन के प्रारम्भिक दिनों में नाथूराम अखिल भारतीय कांग्रेस से जुड़े रहे थे परन्तु बाद में वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में शामिल हो गये। अन्त में १९३० में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी छोड़ दिया और अखिल भारतीय हिन्दू महासभा में चले गये। उन्होंने अग्रणी तथा हिन्दू राष्ट्र नामक दो समाचार-पत्रों का सम्पादन भी किया था। वे मुहम्मद अली जिन्ना की अलगाववादी विचार-धारा का विरोध करते थे। प्रारम्भ में तो उन्होंने मोहनदास करमचंद गांधी के कार्यक्रमों का समर्थन किया परन्तु बाद में गान्धी के द्वारा लगातार और बार-बार हिन्दुओं के विरुद्ध भेदभाव पूर्ण नीति अपनाये जाने तथा मुस्लिम तुष्टीकरण किये जाने के कारण वे गान्धी के प्रबल विरोधी हो गये।

हैदराबाद आन्दोलन :                                          

   १९४० में हैदराबाद के तत्कालीन शासक निजाम ने उसके राज्य में रहने वाले हिन्दुओं पर बलात जजिया कर लगाने का निर्णय लिया जिसका हिन्दू महासभा ने विरोध करने का निर्णय लिया। हिन्दू महासभा के तत्कालीन अध्यक्ष विनायक दामोदर सावरकर के आदेश पर हिन्दू महासभा के कार्यकर्ताओं का पहला जत्था नाथूराम गोडसे के नेतृत्व में हैदराबाद गया। हैदराबाद के निजाम ने इन सभी को बन्दी बना लिया और कारावास में कठोर दण्ड दिये परन्तु बाद में हारकर उसने अपना निर्णय वापस ले लिया।

भारत-विभाजन :                                                 

  १९४७ में भारत का विभाजन और विभाजन के समय हुई साम्प्रदायिक हिंसा ने नाथूराम को अत्यन्त उद्वेलित कर दिया। तत्कालीन परिस्थितियों को देखते हुए बीसवीं सदी की उस सबसे बडी त्रासदी के लिये मोहनदास करमचन्द गान्धी ही सर्वाधिक उत्तरदायी समझ में आये।

गान्धी-हत्या की पृष्ठभूमि:                                      

 विभाजन के समय हुए निर्णय के अनुसार भारत द्वारा पकिस्तान को ७५ करोड़ रुपये देने थे, जिसमें से २० करोड़ दिए जा चुके थे। उसी समय पकिस्तान ने भारत के कश्मीर प्रान्त पर आक्रमण कर दिया जिसके कारण भारत के तत्कालीन प्रधानमन्त्री पंडित जवाहर लाल नेहरू और गृहमन्त्री सरदार बल्लभ भाई पटेल के नेतृत्व में भारत सरकार ने पकिस्तान को ५५ करोड़ रुपये न देने का निर्णय किया, परन्तु भारत सरकार के इस निर्णय के विरुद्ध गान्धी अनशन पर बैठ गये। गान्धी के इस निर्णय से क्षुब्ध नाथूराम गोडसे और उनके कुछ साथियों ने गान्धी का वध करने का निर्णय लिया।

प्रथम प्रयास विफल :                                               

गान्धी के अनशन से दुखी गोडसे तथा उनके कुछ मित्रों द्वारा गान्धी की हत्या योजनानुसार नई दिल्ली के बिरला हाउस पहुँचकर २० जनवरी १९४८ को मदनलाल पाहवा ने गान्धी की प्रार्थना-सभा में बम फेका। योजना के अनुसार बम विस्फोट से उत्पन्न अफरा-तफरी के समय ही गान्धी को मारना था परन्तु उस समय उनकी पिस्तौल ही जाम हो गयी वह एकदम न चल सकी। इस कारण नाथूराम गोडसे और उनके बाकी साथी वहाँ से भागकर पुणे वापस चले गये जबकि मदनलाल पाहवा को भीड ने पकड कर पुलिस के हवाले कर दिया।

शस्त्र की व्यवस्था :                                             

नाथूराम गोडसे गान्धी को मारने के लिये पुणे से दिल्ली वापस आये और वहाँ पर पकिस्तान से आये हुए हिन्दू तथा सिख शरणार्थियों के शिविरों में घूम रहे थे। उसी दौरान उनको एक शरणार्थी मिला, जिससे उन्होंने एक इतालवी कम्पनी की बैराटा पिस्तौल खरीदी। नाथूराम गोडसे ने अवैध शास्त्र रखने का अपराध न्यायालय में स्वीकार भी किया था। उसी शरणार्थी शिविर में उन्होंने अपना एक छाया-चित्र (फोटो) खिंचवाया और उस चित्र को दो पत्रों के साथ अपने सहयोगी नारायण आप्टे को पुणे भेज दिया।

गान्धी-हत्या                                                        

गान्धी-वध के अभियुक्तों की सूची; शंकर किस्तैया, गोपाल गौड़से,मदनलाल पाहवा, दिगम्बर बड़गे      नारायण आप्टे, वीर सावरकर,नाथूराम विनायक गोडसे, विष्णु रामकृष्ण करकरे

३० जनवरी १९४८ को नाथूराम गोडसे दिल्ली के बिड़ला भवन में प्रार्थना-सभा के समय से ४० मिनट पहले पहुँच गये। जैसे ही गान्धी प्रार्थना-सभा के लिये परिसर में दाखिल हुए, नाथूराम ने पहले उन्हें हाथ जोड़कर प्रणाम किया उसके बाद बिना कोई बिलम्ब किये अपनी पिस्तौल से तीन गोलियाँ मार कर गान्धी का अन्त कर दिया। गोडसे ने उसके बाद भागने का कोई प्रयास नहीं किया।

हत्या अभियोग :                                                

 नाथूराम गोडसे पर मोहनदास करमचन्द गान्धी की हत्या के लिये अभियोग पंजाब उच्च न्यायालय में चलाया गया था। इसके अतिरिक्त उन पर १७ अन्य अभियोग भी चलाये गये। किन्तु इतिहासकारों के मतानुसार सत्ता में बैठे लोग भी गान्धी जी की हत्या के लिये उतने ही जिम्मेवार थे जितने कि नाथूराम गोडसे या उनके अन्य साथी। इस दृष्टि से यदि विचार किया जाये तो मदनलाल पाहवा को इस बात के लिये पुरस्कृत किया जाना चाहिये था ना कि दण्डित क्योंकि उसने तो हत्या-काण्ड से दस दिन पूर्व उसी स्थान पर बम फोडकर सरकार को सचेत किया था कि गान्धी,जिन्हें बडी शृद्धा से नेहरू जी बापू कहते थे, अब सुरक्षित नहीं; उन्हें कोई भी प्रार्थना सभा में जाकर शूट कर सकता है।

गान्धी-हत्या के कारण :                                        

 गान्धी-हत्या के मुकद्दमें के दौरान न्यायमूर्ति खोसला से नाथूराम ने अपना वक्तव्य स्वयं पढ़ कर सुनाने की अनुमति माँगी थी और उसे यह अनुमति मिली थी। नाथूराम गोडसे का यह न्यायालयीन वक्तव्य भारत सरकार द्वारा प्रतिबन्धित कर दिया गया था। इस प्रतिबन्ध के विरुद्ध नाथूराम गोडसे के भाई तथा गान्धी-हत्या के सह-अभियुक्त गोपाल गोडसे ने ६० वर्षों तक वैधानिक लडाई लड़ी और उसके फलस्वरूप सर्वोच्च न्यायालय ने इस प्रतिबन्ध को हटा लिया तथा उस वक्तव्य के प्रकाशन की अनुमति दी। नाथूराम गोडसे ने न्यायालय के समक्ष गान्धी-वध के जो १५० कारण बताये थे उनमें से प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं: –                            क्रमांकित सूची                                                   अमृतसर के जलियाँवाला बाग़ गोली काण्ड (१९१९) से समस्त देशवासी आक्रोश में थे तथा चाहते थे कि इस नरसंहार के नायक जनरल डायर पर अभियोग चलाया जाये। गान्धी ने भारतवासियों के इस आग्रह को समर्थन देने से स्पष्ठ मना कर दिया।

भगत सिंह व उसके साथियों के मृत्युदण्ड के निर्णय से सारा देश क्षुब्ध था व गान्धी की ओर देख रहा था, कि वह हस्तक्षेप कर इन देशभक्तों को मृत्यु से बचायें, किन्तु गान्धी ने भगत सिंह की हिंसा को अनुचित ठहराते हुए जनसामान्य की इस माँग को अस्वीकार कर दिया।

६ मई १९४६ को समाजवादी कार्यकर्ताओं को दिये गये अपने सम्बोधन में गान्धी ने मुस्लिम लीग की हिंसा के समक्ष अपनी आहुति देने की प्रेरणा दी।

मोहम्मद अली जिन्ना आदि राष्ट्रवादी मुस्लिम नेताओं के विरोध को अनदेखा करते हुए १९२१ में गान्धी ने खिलाफ़त आन्दोलन को समर्थन देने की घोषणा की। तो भी केरल के मोपला मुसलमानों द्वारा वहाँ के हिन्दुओं की मारकाट की जिसमें लगभग १५०० हिन्दू मारे गये व २००० से अधिक को मुसलमान बना लिया गया। गान्धी ने इस हिंसा का विरोध नहीं किया, वरन् खुदा के बहादुर बन्दों की बहादुरी के रूप में वर्णन किया।

१९२६ में आर्य समाज द्वारा चलाए गए शुद्धि आन्दोलन में लगे स्वामी श्रद्धानन्द की अब्दुल रशीद नामक मुस्लिम युवक ने हत्या कर दी, इसकी प्रतिक्रियास्वरूप गान्धी ने अब्दुल रशीद को अपना भाई कह कर उसके इस कृत्य को उचित ठहराया व शुद्धि आन्दोलन को अनर्गल राष्ट्र-विरोधी तथा हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिये अहितकारी घोषित किया।

गान्धी ने अनेक अवसरों पर शिवाजी, महाराणा प्रताप व गुरू गोबिन्द सिंह को पथभ्रष्ट देशभक्त कहा।

गान्धी ने जहाँ एक ओर कश्मीर के हिन्दू राजा हरि सिंह को कश्मीर मुस्लिम बहुल होने से शासन छोड़ने व काशी जाकर प्रायश्चित करने का परामर्श दिया, वहीं दूसरी ओर हैदराबाद के निज़ाम के शासन का हिन्दू बहुल हैदराबाद में समर्थन किया।

यह गान्धी ही थे जिन्होंने मोहम्मद अली जिन्ना को कायदे-आज़म की उपाधि दी।

कांग्रेस के ध्वज निर्धारण के लिये बनी समिति (१९३१) ने सर्वसम्मति से चरखा अंकित भगवा वस्त्र पर निर्णय लिया किन्तु गान्धी की जिद के कारण उसे तिरंगा कर दिया गया।

कांग्रेस के त्रिपुरा अधिवेशन में नेताजी सुभाष चन्द्र बोस को बहुमत से काँग्रेस अध्यक्ष चुन लिया गया किन्तु गान्धी पट्टाभि सीतारमय्या का समर्थन कर रहे थे, अत: सुभाष बाबू ने निरन्तर विरोध व असहयोग के कारण पद त्याग दिया।

लाहौर कांग्रेस में वल्लभभाई पटेल का बहुमत से चुनाव सम्पन्न हुआ किन्तु गान्धी की जिद के कारण यह पद जवाहरलाल नेहरु को दिया गया।

१४-१५ १९४७ जून को दिल्ली में आयोजित अखिल भारतीय कांग्रेस समिति की बैठक में भारत विभाजन का प्रस्ताव अस्वीकृत होने वाला था, किन्तु गान्धी ने वहाँ पहुँच कर प्रस्ताव का समर्थन करवाया। यह भी तब जबकि उन्होंने स्वयं ही यह कहा था कि देश का विभाजन उनकी लाश पर होगा।

जवाहरलाल की अध्यक्षता में मन्त्रीमण्डल ने सोमनाथ मन्दिर का सरकारी व्यय पर पुनर्निर्माण का प्रस्ताव पारित किया, किन्तु गान्धी जो कि मन्त्रीमण्डल के सदस्य भी नहीं थे; ने सोमनाथ मन्दिर पर सरकारी व्यय के प्रस्ताव को निरस्त करवाया और १३ जनवरी १९४८ को आमरण अनशन के माध्यम से सरकार पर दिल्ली की मस्जिदों का सरकारी खर्चे से पुनर्निर्माण कराने के लिए दबाव डाला।

पाकिस्तान से आये विस्थापित हिन्दुओं ने दिल्ली की खाली मस्जिदों में जब अस्थाई शरण ली तो गान्धी ने उन उजड़े हिन्दुओं को जिनमें वृद्ध, स्त्रियाँ व बालक अधिक थे मस्जिदों से खदेड़ बाहर ठिठुरते शीत में रात बिताने पर मजबूर किया।

२२ अक्टूबर १९४७ को पाकिस्तान ने कश्मीर पर आक्रमण कर दिया, उससे पूर्व माउण्टबैटन ने भारत सरकार से पाकिस्तान सरकार को ५५ करोड़ रुपये की राशि देने का परामर्श दिया था। केन्द्रीय मन्त्रिमण्डल ने आक्रमण के दृष्टिगत यह राशि देने को टालने का निर्णय लिया किन्तु गान्धी ने उसी समय यह राशि तुरन्त दिलवाने के लिए आमरण अनशन शुरू कर दिया जिसके परिणामस्वरूप यह राशि पाकिस्तान को भारत के हितों के विपरीत दे दी गयी।

मृत्युदण्ड

नाथूराम गोडसे को सह-अभियुक्त नारायण आप्टे के साथ १५ नवम्बर १९४९ को पंजाब की अम्बाला जेल में फाँसी पर लटका कर मार दिया गया। उन्होंने अपने अन्तिम शब्दों में कहा था:

“यदि अपने देश के प्रति भक्तिभाव रखना कोई पाप है तो मैंने वह पाप किया है और यदि यह पुण्य है तो उसके द्वारा अर्जित पुण्य पद पर मैं अपना नम्र अधिकार व्यक्त करता हूँ”

After he shot him, instead of running away, he stood his ground and surrounded.

He said, "No one should think that Gandhi was killed by a madman"

One of the best speeches of All time

The Judge was astonished by his speech and commented that if India had followed the Jury system of giving judgments, Godse would have been adjudicated as "Not Guilty" by the Jury, cause after the speech, the whole audience was in tears.

This is the speech given by Nathuram Godse in the court in his last trial for the assasination of Mahatma Gandhi

Born in a devotional Brahmin family, I instinctively came to revere Hindu religion, Hindu history and Hindu culture. I had, therefore, been intensely proud of Hinduism as a whole. As I grew up I developed a tendency to free thinking unfettered by any superstitious allegiance to any isms, political or religious. That is why I worked actively for the eradication of untouchability and the caste system based on birth alone. I openly joined anti-caste movements and maintained that all Hindus were of equal status as to rights, social and religious and should be considered high or low on merit alone and not through the accident of birth in a particular caste or profession. I used publicly to take part in organized anti-caste dinners in which thousands of Hindus, Brahmins, Kshatriyas, Vaisyas, Chamars and Bhangis participated. We broke the caste rules and dined in the company of each other.

I have read the speeches and writings of Dadabhai Nairoji, Vivekanand, Gokhale, Tilak, along with the books of ancient and modern history of India and some prominent countries like England, France, America and' Russia. Moreover I studied the tenets of Socialism and Marxism. But above all I studied very closely whatever Veer Savarkar and Gandhiji had written and spoken, as to my mind these two ideologies have contributed more to the moulding of the thought and action of the Indian people during the last thirty years or so, than any other single factor has done.

All this reading and thinking led me to believe it was my first duty to serve Hindudom and Hindus both as a patriot and as a world citizen. To secure the freedom and to safeguard the just interests of some thirty crores (300 million) of Hindus would automatically constitute the freedom and the well being of all India, one fifth of human race. This conviction led me naturally to devote myself to the Hindu Sanghtanist ideology and programme, which alone, I came to believe, could win and preserve the national independence of Hindustan, my Motherland, and enable her to render true service to humanity as well.

Since the year 1920, that is, after the demise of Lokamanya Tilak, Gandhiji's influence in the Congress first increased and then became supreme. His activities for public awakening were phenomenal in their intensity and were reinforced by the slogan of truth and non-violence, which he paraded ostentatiously before the country. No sensible or enlightened person could object to those slogans. In fact there is nothing new or original in them. They are implicit in every constitutional public movement. But it is nothing but a mere dream if you imagine that the bulk of mankind is, or can ever become, capable of scrupulous adherence to these lofty principles in its normal life from day to day. In fact, honour, duty and love of one's own kith and kin and country might often compel us to disregard non-violence and to use force. I could never conceive that an armed resistance to an aggression is unjust. I would consider it a religious and moral duty to resist and, if possible, to overpower such an enemy by use of force. [In the Ramayana] Rama killed Ravana in a tumultuous fight and relieved Sita. [In the Mahabharata], Krishna killed Kansa to end his wickedness; and Arjuna had to fight and slay quite a number of his friends and relations including the revered Bhishma because the latter was on the side of the aggressor. It is my firm belief that in dubbing Rama, Krishna and Arjuna as guilty of violence, the Mahatma betrayed a total ignorance of the springs of human action.

In more recent history, it was the heroic fight put up by Chhatrapati Shivaji that first checked and eventually destroyed the Muslim tyranny in India. It was absolutely essentially for Shivaji to overpower and kill an aggressive Afzal Khan, failing which he would have lost his own life. In condemning history's towering warriors like Shivaji, Rana Pratap and Guru Gobind Singh as misguided patriots, Gandhiji has merely exposed his self-conceit. He was, paradoxical, as it may appear, a violent pacifist who brought untold calamities on the country in the name of truth and non-violence, while Rana Pratap, Shivaji and the Guru will remain enshrined in the hearts of their countrymen forever for the freedom they brought to them.

The accumulating provocation of thirty-two years, culminating in his last pro-Muslim fast, at last goaded me to the conclusion that the existence of Gandhi should be brought to an end immediately. Gandhi had done very well in South Africa to uphold the rights and well being of the Indian community there. But when he finally returned to India he developed a subjective mentality under which he alone was to be the final judge of what was right or wrong. If the country wanted his leadership, it had to accept his infallibility; if it did not, he would stand aloof from the Congress and carry on his own way. Against such an attitude there can be no halfway house. Either Congress had to surrender its will to his and had to be content with playing second fiddle to all his eccentricity, whimsicality, metaphysics and primitive vision, or it had to carry on without him. He alone was the Judge of everyone and everything; he was the master brain guiding the civil disobedience movement; no other could know the technique of that movement. He alone knew when to begin and when to withdraw it. The movement might succeed or fail, it might bring untold disaster and political reverses but that could make no difference to the Mahatma's infallibility. 'A Satyagrahi can never fail' was his formula for declaring his own infallibility and nobody except himself knew what a Satyagrahi is.

Thus, the Mahatma became the judge and jury in his own cause. These childish insanities and obstinacies, coupled with a most severe austerity of life, ceaseless work and lofty character made Gandhi formidable and irresistible. Many people thought that his politics were irrational but they had either to withdraw from the Congress or place their intelligence at his feet to do with, as he liked. In a position of such absolute irresponsibility Gandhi was guilty of blunder after blunder, failure after failure, disaster after disaster.

Gandhi's pro-Muslim policy is blatantly in his perverse attitude on the question of the national language of India. It is quite obvious that Hindi has the most prior claim to be accepted as the premier language. In the beginning of his career in India, Gandhi gave a great impetus to Hindi but as he found that the Muslims did not like it, he became a champion of what is called Hindustani. Everybody in India knows that there is no language called Hindustani; it has no grammar; it has no vocabulary. It is a mere dialect; it is spoken, but not written. It is a bastard tongue and crossbreed between Hindi and Urdu, and not even the Mahatma's sophistry could make it popular. But in his desire to please the Muslims he insisted that Hindustani alone should be the national language of India. His blind followers, of course, supported him and the so-called hybrid language began to be used. The charm and purity of the Hindi language was to be prostituted to please the Muslims. All his experiments were at the expense of the Hindus.

From August 1946 onwards the private armies of the Muslim League began a massacre of the Hindus. The then Viceroy, Lord Wavell, though distressed at what was happening, would not use his powers under the Government of India Act of 1935 to prevent the rape, murder and arson. The Hindu blood began to flow from Bengal to Karachi with some retaliation by the Hindus. The Interim Government formed in September was sabotaged by its Muslim League members right from its inception, but the more they became disloyal and treasonable to the government of which they were a part, the greater was Gandhi's infatuation for them. Lord Wavell had to resign as he could not bring about a settlement and he was succeeded by Lord Mountbatten. King Log was followed by King Stork.

The Congress, which had boasted of its nationalism and socialism, secretly accepted Pakistan literally at the point of the bayonet and abjectly surrendered to Jinnah. India was vivisected and one-third of the Indian territory became foreign land to us from August 15, 1947. Lord Mountbatten came to be described in Congress circles as the greatest Viceroy and Governor-General this country ever had. The official date for handing over power was fixed for June 30, 1948, but Mountbatten with his ruthless surgery gave us a gift of vivisected India ten months in advance. This is what Gandhi had achieved after thirty years of undisputed dictatorship and this is what Congress party calls 'freedom' and 'peaceful transfer of power'. The Hindu-Muslim unity bubble was finally burst and a theocratic state was established with the consent of Nehru and his crowd and they have called 'freedom won by them with sacrifice' - whose sacrifice? When top leaders of Congress, with the consent of Gandhi, divided and tore the country - which we consider a deity of worship - my mind was filled with direful anger.

One of the conditions imposed by Gandhi for his breaking of the fast unto death related to the mosques in Delhi occupied by the Hindu refugees. But when Hindus in Pakistan were subjected to violent attacks he did not so much as utter a single word to protest and censure the Pakistan Government or the Muslims concerned. Gandhi was shrewd enough to know that while undertaking a fast unto death, had he imposed for its break some condition on the Muslims in Pakistan, there would have been found hardly any Muslims who could have shown some grief if the fast had ended in his death. It was for this reason that he purposely avoided imposing any condition on the Muslims. He was fully aware of from the experience that Jinnah was not at all perturbed or influenced by his fast and the Muslim League hardly attached any value to the inner voice of Gandhi.

Gandhi is being referred to as the Father of the Nation. But if that is so, he had failed his paternal duty inasmuch as he has acted very treacherously to the nation by his consenting to the partitioning of it. I stoutly maintain that Gandhi has failed in his duty. He has proved to be the Father of Pakistan. His inner-voice, his spiritual power and his doctrine of non-violence of which so much is made of, all crumbled before Jinnah's iron will and proved to be powerless.

Briefly speaking, I thought to myself and foresaw I shall be totally ruined, and the only thing I could expect from the people would be nothing but hatred and that I shall have lost all my honour, even more valuable than my life, if I were to kill Gandhiji. But at the same time I felt that the Indian politics in the absence of Gandhiji would surely be proved practical, able to retaliate, and would be powerful with armed forces. No doubt, my own future would be totally ruined, but the nation would be saved from the inroads of Pakistan. People may even call me and dub me as devoid of any sense or foolish, but the nation would be free to follow the course founded on the reason which I consider to be necessary for sound nation-building. After having fully considered the question, I took the final decision in the matter, but I did not speak about it to anyone whatsoever. I took courage in both my hands and I did fire the shots at Gandhiji on 30th January 1948, on the prayer-grounds of Birla House.

I do say that my shots were fired at the person whose policy and action had brought rack and ruin and destruction to millions of Hindus. There was no legal machinery by which such an offender could be brought to book and for this reason I fired those fatal shots.

I bear no ill will towards anyone individually but I do say that I had no respect for the present government owing to their policy, which was unfairly favourable towards the Muslims. But at the same time I could clearly see that the policy was entirely due to the presence of Gandhi. I have to say with great regret that Prime Minister Nehru quite forgets that his preachings and deeds are at times at variances with each other when he talks about India as a secular state in season and out of season, because it is significant to note that Nehru has played a leading role in the establishment of the theocratic state of Pakistan, and his job was made easier by Gandhi's persistent policy of appeasement towards the Muslims.

I now stand before the court to accept the full share of my responsibility for what I have done and the judge would, of course, pass against me such orders of sentence as may be considered proper. But I would like to add that I do not desire any mercy to be shown to me, nor do I wish that anyone else should beg for mercy on my behalf. My confidence about the moral side of my action has not been shaken even by the criticism levelled against it on all sides. I have no doubt that honest writers of history will weigh my act and find the true value thereof some day in future. 

SHRI NATHURAM GODSE 💐🙏



SantoshKumar B Pandey at 4.45PM.

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